कुत्ते
कुत्ते हमारी कई स्याह और ख़तरों से भरी रातों के हीरो रहे आए हैं
जब चांद नहीं होता था आकाश में और टाॅर्च भी बोल चुकी होती
ऐसे अंधियारे आड़े वक़्त में काम आए
चमकीले नामों वाले कुत्ते यानी मोती,शेरु,तारा,कालू,भूरा या भूरी
घरों के बाहर रात के तीसरे पहर जब हाथ को नहीं सूझता था हाथ
ऐसे में इनकी आंखें टोहतीं इधर-उधर और हो जाते जब निश्चिंत
तब ही हमारी मुंदी आंखों में झिलमिलाना शुरू होते स्वप्न
और बताऊं एक बात और मेरी गाढ़ी होती आ रही नींदों में घोला है इनमें से एक ने
अपनी सुरीली भौंकों का राग और जगाया है कई सपनीली सुबहों में
मुझे चाटते हुए, गुनगुनाते हुए कूं...ऊं...कूं...ऊं... कूं...ऊं...ऊं
कोई हिसाब नहीं कहीं कितनी बार दुत्कारे जाने के बाद भी कितनी बार और क्यों
इन्होंने फिर हिलाई पूंछ करीब आकर हमारे और
रोए भला क्यों अकेले में आस्मां की ओर मुंह उठाए
मेरे पुरखों के भी पुरखे और इन कुत्तों के भी पुरखों के पुरखे
साथ बैठे होंगे अक्सर थकान के वक़्त खाई होगी रोटी घने जंगल में
यह सोचते हुए मैं सोचता हूं
दो लोगों के रहते आबाद रहती है दुनिया
आधी हो जाती है थकान बंटकर हो जाता है दुःख आधा और दो-गुनी हो जाती है खुशी
वफ़ादारी के पर्याय ये कब से तो हैं सहयात्री हमारे
इन से ही कटा है दुर्धर्ष संघर्षाें का हमारा समय
शामिल हो तमाम दुआओं में एक दुआ इनके नाम भी
सड़क किनारे की जगहों और मुहल्ले-गलियों के लोप हो जाने के इस समय में
मेरी पहली और आखिरी चिन्ता में शामिल हैं घर-बाहर के कुत्ते
मैं पढ़ता हूं धरती की चट्टानों की परतों में दर्ज कुत्ते के पंजों की छाप
जो चलते-चलते आकाश की ओर चले गए हैं
सुनो ! युधिष्ठिर , सुनो !
आखिरी बचे हुए शख़्स, सुनो !
एक आवाज़ जो शेष बची हुई है व्योम में उसका भी ज़रूरी है यशोगान
आखिर वह भी तो रहा अपने धर्म पर अडिग
या कहें रखे रहा अंत तक वह निष्ठा
जिससे टिका रहा धर्म ।
कविता: राग तेलंग
कुत्ते हमारी कई स्याह और ख़तरों से भरी रातों के हीरो रहे आए हैं
जब चांद नहीं होता था आकाश में और टाॅर्च भी बोल चुकी होती
ऐसे अंधियारे आड़े वक़्त में काम आए
चमकीले नामों वाले कुत्ते यानी मोती,शेरु,तारा,कालू,भूरा या भूरी
घरों के बाहर रात के तीसरे पहर जब हाथ को नहीं सूझता था हाथ
ऐसे में इनकी आंखें टोहतीं इधर-उधर और हो जाते जब निश्चिंत
तब ही हमारी मुंदी आंखों में झिलमिलाना शुरू होते स्वप्न
और बताऊं एक बात और मेरी गाढ़ी होती आ रही नींदों में घोला है इनमें से एक ने
अपनी सुरीली भौंकों का राग और जगाया है कई सपनीली सुबहों में
मुझे चाटते हुए, गुनगुनाते हुए कूं...ऊं...कूं...ऊं... कूं...ऊं...ऊं
कोई हिसाब नहीं कहीं कितनी बार दुत्कारे जाने के बाद भी कितनी बार और क्यों
इन्होंने फिर हिलाई पूंछ करीब आकर हमारे और
रोए भला क्यों अकेले में आस्मां की ओर मुंह उठाए
मेरे पुरखों के भी पुरखे और इन कुत्तों के भी पुरखों के पुरखे
साथ बैठे होंगे अक्सर थकान के वक़्त खाई होगी रोटी घने जंगल में
यह सोचते हुए मैं सोचता हूं
दो लोगों के रहते आबाद रहती है दुनिया
आधी हो जाती है थकान बंटकर हो जाता है दुःख आधा और दो-गुनी हो जाती है खुशी
वफ़ादारी के पर्याय ये कब से तो हैं सहयात्री हमारे
इन से ही कटा है दुर्धर्ष संघर्षाें का हमारा समय
शामिल हो तमाम दुआओं में एक दुआ इनके नाम भी
सड़क किनारे की जगहों और मुहल्ले-गलियों के लोप हो जाने के इस समय में
मेरी पहली और आखिरी चिन्ता में शामिल हैं घर-बाहर के कुत्ते
मैं पढ़ता हूं धरती की चट्टानों की परतों में दर्ज कुत्ते के पंजों की छाप
जो चलते-चलते आकाश की ओर चले गए हैं
सुनो ! युधिष्ठिर , सुनो !
आखिरी बचे हुए शख़्स, सुनो !
एक आवाज़ जो शेष बची हुई है व्योम में उसका भी ज़रूरी है यशोगान
आखिर वह भी तो रहा अपने धर्म पर अडिग
या कहें रखे रहा अंत तक वह निष्ठा
जिससे टिका रहा धर्म ।
कविता: राग तेलंग

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