बुलबुल आख्यान - राग तेलंग
सुनो ! मेरा विश्वास करो,वो बुलबुल मुझसे
बात करती है ... हां ! रोज... हां !! वही बुलबुल जो रोज सुबह हमारे दालान में लगे झूमर
पर बैठती है । उसने वहां पर अपना घोंसला बनाया हुआ है । पिछले साल भी ये बुलबुल
मुझसे बात करती थी शायद ये वही बुलबुल
नहीं भी हो--- मगर हां ! बुलबुल मुझसे बात करती है--- मेरा यकीन करो !
इतनी लंबी पंक्तियों के कथन के बाद उसे
लग रहा था कि मैं यकीन कर लूंगा उसके इस इसरार पर कि एक बुलबुल एक औरत से बातें भी
करती होगी । मेरे पास कोई चारा न था । लेकिन हां ! मैं यकीन तो कर रहा था उसकी बात
पर, मगर जाहिर करने की तमाम भंगिमाएं व्यर्थ हुई जाती थीं ।
और फलतः उसके बुलबुल आख्यान जारी थे । उसने आगे कहा- देखो...! मेरी तरफ देखो !
इतने दूर...दस उंगल दूर से हम आपस में बातें करते हैं ! पहले मक्का--- फिर चने---फिर आलू के पराठे
के टुकड़े दिए--- उसे कुछ भी नहीं जंचा---
फिर मैं दौड़कर घर की बनी सेव लाई तो बुलबुल ने पट् से
कुछ सेव चोंच में दबाई और जा बैठी झूमर पर और अपने नन्हों की चोंच में डाल आई ।
फिर आई...उड़ी और चोंच में डाल आई । मुझे बुलबुल ने बता दिया कि उसे सेव अच्छी लगती
है । शायद घर की बनी ही !
हमारे दालान में एक नई दुनिया बस गई थी और मुझे इसका पता
भी न चला । कैसे झूमर भी कई बार उम्मीदों के आशियाने बन जाते हैं । एक अलग दुनिया
का प्राणी आपकी दुनिया में एक अजनबी जगह पर आशियाना बना लेता है और जाने कैसे आपसे
संवाद स्थापित कर लेता है । और आपको इसका पता तब चलता है जब बातचीत में
गृहस्वामिनी आपको टोकती है - सुनो ! तुम्हें पता है --- वो बुलबुल मुझसे
बात करती है--- इतने नजदीक से...हर सुबह । ऐसी सुबह तो रोज होनी
चाहिए जिसमें बुलबुल बतियाएं&रंग-बिरंगे फूल&पेड़-पौधे हमारे साथ नाचें और हम तितलियों की माफिक उड़ें] बागीचा-बागीचा !
आमीन !

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