राग तेलंग

Saturday, May 3, 2014



विगत दिनों प्रो.विजय अग्रवाल जी की कविताओं के नये संग्रह फैलो हरियाली की तरह पर एक सम्वाद कार्यक्रम भोपाल में आयोजित हुआ .उनके नये संग्रह पर एक नज़र



विजय जी और डार्विन का पुनर्स्मरण - राग तेलंग

फैलो हरियाली की तरह संग्रह की कविताओं का सिलसिलेवार उल्लेख करना मैं इसलिए जरूरी नहीं समझता क्योंकि अब तक मैं कविता संग्रहों पर केन्द्रित आलेखों को देखता हूं, तो लगता है मैंने भी वैसा ही किया तो बस एक चमक सी कौंधेगी और फिर भीतर की आग कुछ देर में बुझ जाएगी। इसीलिए सोचा क्यों न इस संग्रह पर कुछ अलहदा ढंग से बात की जाये कुछ यूं कि वे बातें स्मृति के गिर्द एक बड़ा घेरा सा बना ले और देर तक उसकी अनुगूंज सुनाई देती रहे।
     इस संग्रह के कवि विजय अग्रवाल जी एक स्पष्ट सोच और समझ के साथ कागज पर कलम चलाते नजर आते हैं। संषय की हल्की सी एक भी रेखा किसी सफे पर नहीं है। ये कविताएं बताती हैं कि कवि होने के लिए अति संवेदनषील हृदय और उतनी ही अति की मात्रा की आंख चाहिए। हालांकि इस बात की पूरी आषंका बनी रहती है कि इस अति को अगर ठीक-ठीक साधा न जा सका तो यह अति कवि को कभी मुष्किल में भी डाल सकती है, ठीक बूमरेंग बनकर यह अति हरेक नागरिक में अंतर्निहित होती है ’’बाई डिफाल्ट’’ लेकिन अगर नागरिक कवि होने की तरफ मुड़ने लगे तो इसके पहले ही सत्तातंत्र की ताकतें उसे धर्म, जाति, पूंजी, अन्याय की अतियों की ओर मोड़ देती है और क्लास यानी वर्ग के डि-कंस्ट्रक्षन यानी विखंडन की यह प्रोसेस उस नेटवर्क के उस आधुनिक बूमरेंग से संपन्न होती है जो चलने वाले की ओर उसके खात्मे के उद्देष्य से वापस नहीं आता। प्रकृति के द्वारा प्रकृति के लिए, प्रकृति के रहने तक यह अति उसे कवि बनाए रखती है, वही सच्चा कवि होता है, सभी मौजूद कवियों में सबसे अलग तरह का दिखता मगर कुछ-कुछ सब कवियों के जैसा भी।
     तो इस बिंदु पर आकर आप मेरा आषय समझ गए होंगे कि यह मनुष्य के डीएनए में धर्मांधता को घुसने से बचाने का समय है और यह भी न भूला जाए कि यही वह समय है जो तकनीक के प्रति भी अंधविष्वासों की भूमि तैयार कर रहा है । जिससे भविष्य में धर्म से संचालित रोबोट हमारी व्यवस्था को चलाएंगे और इकोफ्रेंडली लोकतांत्रिक व्यवस्था की दुहाई देंगे। क्या गजब हो अगर अब तक पांचों इंद्रियों का आभासी अहसास कराने वाली तकनीक खोजी जा चुकी हो और ये ऐसे नए आभासी मनुष्य जल्द ही खुद को एकमेव अमर ईष्वर घोषित कर दें।
     पैकेज्ड फ्रूट जूस के रहस्य को हालांकि हम आप सब जानते हैं जिसमें पैक पर ही लिखा होता है, छोटे नहीं बारीक अक्षरों में कि ’’नो फ्रूट जूस एण्ड पल्प एडेड’’ यानी सीधी सच्ची बात यह कि भैया इसमें का फ्रूट जूस फलों का रस नहीं है मगर भाईजान है यह फ्रूट जूस ही यकीन न हो तो देखो पैक पर सबसे सुंदर कटे हुए आम या किसी फल की फांख की तस्वीर और बंद करके आंख पी जाओ, सेहत भी खराब जेब भी ढीली। जान लें ये फ्रूट जूस जो लागत का 20ः ही होता है उसमें 70ः पानी होता है बाकी का रासायनिक मिश्रण। अब इसका कविता की दुनिया से भला क्या संबंध हो सकता है, मैं सोचता हूं। संक्षेप में कहूं तो मुझे लगता है प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा से संपन्न कवि हमारे समय में कम ही रह गए हैं जो छाए हुए हैं या चर्चा में हैं वे पैक्ड फ्रूट जूस ही है। मुस्कराने वाले जरूर मुस्कराए मगर कुढ़ने वालों को ताकीद कर दूं कि ऐसा ही है भाई। असल अगर नगण्य नहीं होता तो हम कवि कलाकार और संगतराषों की जरूरत इस दुनिया को भला क्यों होती। कवि को कोई शौक नहीं पड़ा अपनी, माइक्रोस्कोपिक और टेलीस्कोपिक इलेक्ट्रान आंख लेकर अपनी पेषानी पर हमेषा आईने में देखते रहने का।
     बदलती हुई दुनिया के विभिन्न रंग और रंगों के आपसी मिश्रण के रंग यह कवि पहचानता है  और हर पंक्ति में बताता चलता है बल्कि कहें सावधान करता चलता है ।  नई दुनिया के लिए नई आंख अगर चाहिए है तो वह बनी पुरानी आंख से ही है और चष्मा बदल दो तो खुद को भी यकीन हो जाता है कि हमें मोतियाबिंद नहीं हुआ था।
     आज के वीडियो युग में जहां दृष्य ही विष्वसनीय हों और लिखे हुए को पढ़ने का अवकाष नहीं, कुछ समझाने के लिए जहां किसी गुरू की कोई जरूरत नहीं वहां नागरिक खुद के भरोसे छोड़ दिया गया एक अनाथ नागरिक है, निस्सहाय और निराश्रित उसका कोई सायबान नहीं। ये किन खुदाओं की बनाई हुई दुनिया है जो तमाम हरियाली लील गए हैं और जिन्हें पूजा जा रहा है आंखे मींच कर। मैं कहना चाहता हूं देखना जानना नहीं है, जानना देखे बगैर हो सकता है, जानना समझना भी है, समझना पूरा जानना है, जाने बगैर समझना असंभव, समझना आसान, समझाना हमेषा से मुष्किल ।    इन दिनों जब शब्दकोषों के पन्ने पलटना लोग भूल गए हों, इन दिनों जब पन्नों से आने वाली खुषबू लोग भूल गए हों, इन दिनों जब पाठक को समर्पित किए जाने वाली किताबों के पहले सफे कोरे ही रह जाते हों, इन दिनों जब लोग हिसाब की ही किताब में मुब्तिला हों, किताबों का भविष्य डराता है बहुत डराता है। मगर इस सबके बावजूद जिन्हें अहसास है खजाना कहां है खजाने के नक्षे की लकीरे जो पढ़ना जानते हैं उनके लिए विजय अग्रवाल की इस पुस्तक से गुजरने के बाद फैली हरियाली को साक्षात देखना है। वह भी एक अलग ही चष्मे से। आखिरकार प्रकृति को प्राकृतिक आंख से देखने का वरदान एक नैसर्गिक मनुष्य को ही तो मिला हुआ है अन्य किसी जीव को नहीं। डार्विन को याद करना यहां समीचीन होगा जिनका कहा संभवतः विजय अग्रवाल जी के संदर्भ में ही फिट है कि सरवाइवल ऑफ दि फिटेस्ट।


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