- कविता: राग तेलंग
सब कुछ, कुछ-कुछ
कुछ को जानता नहीं था
तब तक कुछ नहीं था
कुछ को जब जाना
पता चला
सब कुछ के होने का
सब कुछ भी
सब नहीं
यह समझा
कुछ नहीं से शुरूकर
अब नहीं कहता
जानता कुछ नहीं
न ही
जानता सब कुछ
बस
समझता हूं
कुछ-कुछ ।
- कविता: राग तेलंग
जल गाथा
जहां पानी नहीं मिलेगा
वहां पानी के लिए प्यास जरुर मिलेगी
भले वहां आदमी न हो
कोई एक भटका हुआ परिंदा जरुर होगा,थकान
से लबरेज़
या जमीन के अंदर और फैलने को बेक़रार एक जड़ की
षिराएं
या वहां नीरव सन्नाटे को गहराती अजीबोगरीब
आवाजें़ होंगी उन कीटों की
जो नमी के गायब हो जाने का सोग सस्वर मना रहे
होंगे
ये तो पानी के लिए प्यास की नन्ही परिभाषाएं
हैं
इसके उलट वहां आसमान में खाली पड़ा होगा
एक पानीदार बादल के टुकड़े के हिस्से का स्थान
जो हवा के संदेषों के लिए कर रहा होगा बेचैनी
से इंतज़ार
दूर कहीं समुद्र के बीचों-बीच कोई एक मछुआरा
पानी के अक्षुण्ण बने रहने के लिए कर रहा होगा
कोई टोटका आस्मां की ओर
जिसका असर होना होगा कभी वहां
जहां पानी नहीं होगा
मगर पानी के लिए प्यास जरुर होेगी
मैं जहां-जहां गया
वहां-वहां
पानी के लिए हर कंठ में अंतहीन प्यास की लौ
देखी
‘जल ही जीवन है’
यह धरती पर उपजा मूल मंत्र है
पहला और आखिरी
जो जीवन यात्रा के आरंभ से लेकर अंत तक दोहराया
जाता रहेगा
भले पानी हो न हो कभी कहीं पर
मगर पानी के लिए प्यास तो बची रहेगी ।
- कविता: राग तेलंग
जल गाथा-2
पानी की बूंदों के भीतर
प्रकाष के रेषे
हर समय के लिए आकर ठहर जाते हैं
अंजुरि भर पानी की
चेहरे पर छपाक्
कई चमक एक साथ
भीतर समाविष्ट कराएगी
मुस्कराओ
पानी की महिमा समझकर
पानी में घुल जाने दो मुस्कान
पानी पर दीखते प्रतिबिंबों में
पानी ही प्राण भरता है
सबके भीतर पानी है
क्या आग, क्या बादल,
क्या
पत्थर
पानी की ध्वन्यात्मक भाषा
अलग-अलग कूट लिपियों में है
अग्नि हर रूप में अग्नि है
थोड़ी धूप भी, थोड़ी छांह भी
मगर वृक्ष झुलस जाएं इसके पहले
बादल बीच में आ जाते हैं
जीवन की उर्वरता अक्षुण्ण रहे
एक पत्थर की भी आकांक्षा होती है
भित्ति चित्रों में दर्ज है यह सत्य
अमरता की सारी प्रक्रिया आभासी है
जो अंत में कहां आकर ठहरती है
यह नामालूम है ।
- कविता: राग तेलंग
अंतिम दृष्य
यह पृथ्वी का अंतिम वृक्ष है
इसके बाद कोई जड़ नहीं
कोई पत्ता नहीं
कोई षाख, कोई फल नहीं
इसके बाद कोई बीज ही नहीं है
यह पृथ्वी का अंतिम वृक्ष है
कोई संभावना नहीं है इसके बाद
हां ! इसके बाद कोई संभावना नहीं है
मनुष्य के पहले से आया हुआ और
मनुष्य के होते तक बना रहा
यह पृथ्वी का अंतिम वृक्ष है
फिर भी मनुष्य सोचता है
वह कभी अंतिम मनुष्य नहीं होगा
यह जानते हुए भी कि
यह पृथ्वी का अंतिम वृक्ष है
देखो !
यह पृथ्वी का अंतिम दृष्य है ।
- कविता: राग तेलंग
बचाओ
मेरे समय के सच में
सच में
बहुत ज्यादा झूठ घुल-मिल गया है
झूठ मेरे समय का सच है
बेहद मुष्किल है और ख़तरनाक भी
आज का सच
पूरा का पूरा
बर्दाष्त कर सकना
लिखूं भी तो
पढ़ेगा कौन ?
अपने समय का सच
और पढ़ेगा भी तो
क्या मुफीद लगेगा
अपने समय का सच ?
पहचान के संकट के दौर में
सच की पहचान संकट में है ।
- कविता: राग तेलंग
मठाधीष
ये लोग सब जानते हैं
ये लोग कुछ नहीं जानते
ये लोग जानते हुए भी कुछ नहीं जानते
ये लोग कभी कुछ जानते हैं, कभी
कुछ नहीं जानते
ये लोग जो हम जानते हैं जानते हैं
ये लोग वह सब जानते हैं जो हम नहीं जानते
ये लोग बड़े चालाक हैं, ये लोग समझदार
दीखते हैं
ये लोग बड़े धूर्त हैं, ये लोग विद्वान
दीखते हैं
ये लोग दिखने में, न दिखने में
माहिर हैं
ये लोग दृष्टव्य हैं
ये लोग अदृष्य हैं ।
- कविता: राग तेलंग
पापड़
जीवन जीना अगर मुष्किल लगता हो तो
कुछ-कुछ वैसा ही है
पापड़ का आटा बना सकना
और उससे भी कठिन उसे सही-सही बेल पाना
उस धारीदार स्लिम बेलन से उस खासमखास आटे के
उपर
एक संतुलित मगर बराबर दबाव बनाते हुए
सच !
सोचो तो मुष्किल है हर काम इसी तरह
और अनुभव हो जाए तो कुछ भी कुछ नहीं
जीवन में आए हुए संघर्षाें को याद करते हुए
बहुत याद आया पापड़
यह पापड़ ही था
जो घने जंगलों की दुर्धर्ष यात्राओं की लंबी
कहानियों को
एक मुहावरे में बताने के काम आता
और फिर पहाड़ सी लगती जिं़दगी छोटी नज़र आती
कई बार तो जवानी के दौर में मिले
गुरुनुमा अजनबियों के इन बोलों से भी मिला
हौसला कि
हमने भी कम पापड़ नहीं बेले खुद को अकेला मत
समझो
पापड़ सिर्फ एक लफ़़्ज़ भर नहीं होता
वह गोल दुनिया के संघर्षाें के इतिहास को
हमारी स्मृति के भूगोल में
दर्ज करता चलता है कदम से कदम मिलाते
पापड़ पर फैली दिखाई देती काली मिर्च
भला कोई समझदार गिनता है क्या !
उसी से तो ज़िंदगी का स्वाद है
पापड़ ज़िंदगी की किताब का एक सुनहरा गोल पन्ना
है
रोटी के बाद पृष्ठ नंबर दो
खाते हुए पापड़
ध्यान देकर सुनो उसके अल्फाज़ों की आवाज़ !
पापड़ से भोजन की शुरुआत या अंत
जीवन में श्रम से हासिल
अन्न का शुक्रियागान है
जिसे बेलते हुए भी गुनगुनाया गया था और
अब भी इसी वक़्त
यह कविता पढ़ने-सुनने के दौरान ।
- कविता: राग तेलंग
भाई
हर लड़की को जिसका कोई न कोई भाई था
बख़्शा गया था उसे एक नेमत की तरह
भाई बचपन के पूरे दिनों के लिए दी हुई किताब था
जिसे हर बहन ने पढ़ा था हर्फ़ दर हर्फ़
गड्ढे से ऊपर आने के लिए यह भाई ही था
जो बढ़ाता था हाथ बहन के कोमल हाथों की तरफ
अपनी ताकत का एक अंष संचारित करते
और तब लड़की सचमुच ऊपर आकर खिलखिला उठती
अंधेरे में साथ चलते हुए अचानक वह थाम लेता
उसकी कंपकंपाती हथेली और
चंद्रमा यह देखते हुए याद करता
परंपरा के अनंत पोषण की प्रक्रिया
राखी का दिन उन्होंने मिलकर रोज मनाया बचपन के
दिनों तक
यह और बात है उन दिनों उनके कपड़ों में छेद होते,
बाल छितरे और अभाव के मारे जर्जर लम्हे
जिन्हें वे बाद में अकेले में याद करने के लिए
इकट्ठा किए जाते
जीते जी जब विदा का दिन आ जाता तब
भैय्या ऽऽऽ आ ऽऽऽ आ ऽऽऽ कहते रूआंसी हो पड़ती
लड़की और आगे बढ़ती
मगर इतने में पीछे खड़ी सासनुमा स्त्री कांधे पर
हाथ रख देती और
भाई-बहन का गले मिलना पुनः स्थगित हो जाता
उस दृष्य के बाद जीवन के दृष्य से भाई की छवि
धुंधली होने लगती और
बरस दर बरस वह एक धब्बे में तब्दील होते दीखता
दूर जाते-जाते
अर्से बाद किसी रात पूरनमासी के दिन चांद की ओर
उंगली दिखाते
अपने नन्हें-मुन्नों को करते हुए इषारा लड़की
बताती
वोऽऽऽ वोऽऽऽ देखो! चंदामामा
और डबडबाई आंखों व रूंधे गले से कोषिष करके भी
गुनगुनाने से मजबूर हो जाती वह सनातन गीत:
...चंदामामा दूर के .....।
- कविता: राग तेलंग
बच्चे बड़े हो गए की सूचना
एक दिन आप ध्यान से सुनते हैं और
चौंक जाते हैं
आप पाते हैं
आपके बच्चे
आपकी ही भाषा आपके ही अंदाज़ में बोलने लगे हैं
चीज़ों को बरतने का उनका ढंग
काफी कुछ आपसे मिलने लगा है
यहां तक कि उनकी कद-काठी देखकर और आवाज़ सुनकर
आपके लोगों को आपके होने का भ्रम हो जाता है
ऐसे किसी एक दिन
आपको तसल्ली हो जाती है और
उस रोज़ आप
बेफ़िक्र होकर निकलते हैं
घर से बाहर ।
- कविता: राग तेलंग
दृष्य में स्त्री का प्रवेष
एक स्त्री जिस किसी दृष्य में प्रवेष करती है
मंज़र बदल जाता है
यह एक ताक़त को देखने-महसूस करने की बात है
चाहे वह पेंटिंग हो,फिल्म हो,बागीचा
हो या हो स्वप्न
एक स्त्री अकेली नहीं जाती कहीं पर,उसके
साथ रंग चलकर आते हैं
और खुषबू ,और ख़याल,और
ख़्वाब,और...और... और भी बहुत कुछ
जब मुस्कराती है मोनालिसा बन जाती है
जब खुलकर हंसती है बेड़ियां टूट-टूट जाती हैं
जब रोती है चांद सितारे थम जाते हैं
जब लोरी सुनाती है जगमगाने लगते हैं स्वप्न
उसके कई नाम हैं जो दिल के संदूको में बंद हैं
जिन्हें कभी नहीं खोला जाना है
जो गूंज रही है धड़कनों में संगीत बनकर
जो बार-बार चलाती है बुरूष स्मृतियों के केनवास
पर
जो पसीने की गुजरी हुई लकीर पर हाथ फेरकर दूर
करती है थकान
वह एक स्त्री है जिसके होते घूम रहे हैं सारे
पहिए अब तक
मगर कुछ या कई दृष्य ऐसे हैं जो थमे हुए हैं
वहीं के वहीं
जैसे अभी भी वह लगा रही है झालर अपने बुर्के
में
बात करती है सकुचाती-डरी-सहमी सी घूंघट की आड़
में
उसकी सारी उमंगें और उत्साह थककर चूर हो जाने
हैं रसोईघर में ही
अभी भी वह इजाजत लेने की मोहताज है
उसकी अनंत इच्छाओं के आकाष में ढेर सारे टूटे
हुए पंख छितरा रहे हैं
उसके क्रंदन के स्वर बादलों की गड़गड़ाहट से हैं
कहीं तेज़
अभी दरवाजों के पीछे कई ताले जड़े दरवाजे हैं
जिनके पीछे खड़ी है स्त्री इंतज़ार में
अभी कई और दृष्यों की प्रतीक्षा है जिनमें
अपेक्षित है
स्त्री का प्रवेष ।
- कविता: राग तेलंग
कुत्ते
कुत्ते हमारी कई स्याह और ख़तरों से भरी रातों
के हीरो रहे आए हैं
जब चांद नहीं होता था आकाष में और टॉर्च भी बोल
चुकी होती
ऐसे अंधियारे आड़े वक़्त में काम आए
चमकीले नामों वाले कुत्ते यानी मोती,षेरु,तारा,कालू,भूरा
या भूरी
घरों के बाहर रात के तीसरे पहर जब हाथ को नहीं
सूझता था हाथ
ऐसे में इनकी आंखें टोहतीं इधर-उधर और हो जाते
जब निष्चिंत
तब ही हमारी मुंदी आंखों में झिलमिलाना षुरू
होते स्वप्न
और बताऊं एक बात और मेरी गाढ़ी होती आ रही
नींदों में घोला है इनमें से एक ने
अपनी सुरीली भौंकों का राग और जगाया है कई
सपनीली सुबहों में
मुझे चाटते हुए, गुनगुनाते हुए
कूं...ऊं...कूं...ऊं... कूं...ऊं...ऊं
कोई हिसाब नहीं कहीं कितनी बार दुत्कारे जाने
के बाद भी कितनी बार और क्यों
इन्होंने फिर हिलाई पूंछ करीब आकर हमारे और रोए
भला क्यों अकेले में आस्मां की ओर मुंह उठाए
मेरे पुरखों के भी पुरखे और इन कुत्तों के भी
पुरखों के पुरखे
साथ बैठे होंगे अक्सर थकान के वक़्त खाई होगी
रोटी घने जंगल में
यह सोचते हुए मैं सोचता हूं
दो लोगों के रहते आबाद रहती है दुनिया
आधी हो जाती है थकान बंटकर हो जाता है दुःख आधा
और दो-गुनी हो जाती है खुषी
वफ़ादारी के पर्याय ये कब से तो हैं सहयात्री
हमारे
इन से ही कटा है दुर्धर्ष संघर्षाें का हमारा
समय
षामिल हो तमाम दुआओं में एक दुआ इनके नाम भी
सड़क किनारे की जगहों और मुहल्ले-गलियों के लोप
हो जाने के इस समय में
मेरी पहली और आखिरी चिन्ता में शामिल हैं
घर-बाहर के कुत्ते
मैं पढ़ता हूं धरती की चट्टानों की परतों में
दर्ज कुत्ते के पंजों की छाप
जो चलते-चलते आकाष की ओर चले गए हैं
सुनो ! युधिष्ठिर , सुनो !
आखिरी बचे हुए शख़्स, सुनो !
एक आवाज़ जो शेष बची हुई है व्योम में उसका भी
ज़रूरी है यषोगान
आखिर वह भी तो रहा अपने धर्म पर अडिग
या कहें रखे रहा अंत तक वह निष्ठा
जिससे टिका रहा धर्म ।
- कविता: राग तेलंग
एक दिन
बोली जाने वाली भाषा
खो जाएगी
जिस भाषा में सोचेंगे
उसमें कह नहीं सकेंगे
और कहेंगे भी तो पाएंगे
एक भाषा खो गई है
इस तरह
एक दिन
विरोध भी मुमकिन न होगा
सोचेंगे भी तो
कह नहीं सकेंगे
और कहेंगे भी तो
कोई समझेगा नहीं
पता भी न चलेगा
विरोध नाम की कोई चीज
हुआ करती थी दुनिया में ।
- कविता: राग तेलंग
जब एक राज्य में सूखा पड़ा
एक राज्य में एक समय में खूब मेले लगते थे
जिनमें मिलना.जुलना ज्यादा होता था खरीदना
बेचना तो बहाना था
मेले में लोग खूब बातें करतेएहंसते.खिलखिलाते
हाथ में हाथ डालकर घूमते आपस में मजाक करते
राजा को यह अच्छा न लगता
एक दिन राज्य में ऐसे मेले होना बंद हो गए
लोग उदास हो गए राजा ने उदासी पर टैक्स लगा
दिया
राजा ने ऐलान किया.बहुत समृद्ध हुआ है राज्य
मगर अब भी लोग चोरी छुपे
मोबाइल पर मिलते अकेले में हंसते.बतियाते
संदेश भेजते मजाक करते
यहां भी टैक्स तो देना ही पड़ता
राज्य की समृद्धि जारी थी
दरबारियों के साथ अकेले में राजा खूब खुश होता
यह सोचकर कि
लोग उदास होकर भी खुश हो लेते हैं किसी तरह भी
अचानक राजा ने इन आभासी मेलों पर प्रतिबंध लगा
दिया
राज्य में उदासी और छा गई
फिर उसने खुशी को अपराध घोषित कर दिया
राज्य में सूखा पड़ गया
लोग तड़ातड़ मरने लगे
इस तरह राज्य मर गया
मरे हुए राज्य की श्रद्धांजलि सभा में बाकी
देशों ने कहा.
जिस देश में उदासीएखुशीएमिलने.जुलनेएबतियाने पर
टैक्स लगता हो
वहां का राजा कभी नहीं मरता ।
- कविता: -राग तेलंग
कथा: एक दिन एक स्त्री के बीमार पड़ जाने की
एक दिन
एक स्त्री
जो पृृथ्वी पर मौजूद सारे घरों का काम करती थी
पड़ गई अचानक बीमार
अचानक इस तरह हो जाने से चारों तरफ मच गया
हड़कंप
अलस्सुबह आंगन में झाड़ू लगाती नहीं दिखी वह
स्त्री
तो रोजाना आने वाले पंछी वापस लौट गए
लोग कहने लगे-क्या हुआ ?
आज चहचहाहट क्यों सुनाई नहीं दे रही ?
क्या मर गया है प्रकृति का संगीत ?
पौधों को पानी देने वाला कोई न था तो पौधे
मुरझाा गए
लोग कहने लगे-क्या हुआ ?
आज फूल और फूलों की सुगंध नहीं है
कैसे होगी मूर्तियों की पूजा ?
तितलियों को बतियाने वाला कोई न मिला तो वे
अपने-आप रुठ गईं और
जा बैठीं आकाष के एक सूने बागीचे में
लोग कहने लगे-क्या हुआ ?
आज हवा में पंखों से झरने वाले रंग दिखाई नहीं
देते
पंखों को सहलाने वाले वो हाथ क्या हुए ?
रसोईघर में दीवारों ने आपस में खुसफुस की
आज जलतरंग के स्वर उनसे न टकराने के बारे में
और ज़ार-ज़ार आंसू बहाए
छत पर खिंची रस्सियों ने धूप से साफ कह दिया-
आज कपड़े धोने-सुखाने का दिन नहीं
ऐ धूप ! तुम जाओ सूरज से कह दो लौट जाए
इस तरह छा गया अंधेरा असमय और
उस स्त्री से जुड़ी सारी उम्मीदों की चमक खो गई
यूं तो षाम उस दिन बड़ी देर से हुई
सूर्योदय से सूर्यास्त तक वह स्त्री अकेली पड़ी
कराहती रही
गूंजता रहा दिक्-दिगंत में उसका आर्तनाद
इसके बावजूद पृथ्वी पर कोई न था जो लेता स्त्री
के हाथ का काम अपने हाथ में
सबने ईष्वर की आड़ ली और
उपवास का बहाना लेकर स्त्री का भूखा-प्यासा
रहना न्यायोचित ठहराया
इस तरह एक घर, फिर दूसरा घर,फिर
तीसरा घर...
करते-करते असंख्य घर बीमार पड़ गए महामारी फैल
गई
तब से आज का दिन है वह स्त्री बिस्तर से उठ
नहीं पाई है
भले दिखती हो उसकी छाया बेमन से चूल्हा-चौका
संभालती
या कहीं और काम पर लगी हुई
और यह जो स्त्री है न ! चुपचाप-सी
जो भली-चंगी दिखाई दे रही है
यह वही बीमार स्त्री है
जिसकी वजह से उदास है समूचा आसपास
जिसका दर्द बांट लेने वाला आज भी कोई नही
देखो ज़रा ध्यान से !
- कविता: -राग तेलंग
राखी की ंिफल्म
देखते, देखते, देखते
एक दिन ऐसा आता है
जब आपको पता चलता है
आपको राखी से प्यार हो गया है
आप दीवाने हो गए हैं उसके
फिर तो बात ही क्या !
आपका बागीचा गुलज़ार हो जाता है
आप हर पल राखी के पीछे पड़ जाते हैं
सब तरफ वहीच एक हीरोईन नज़र आती दिखती है
फिल्म दर फिल्म...फिल्म दर फिल्म...
आप हीरो और हीरोईन एक
वही बस राखी...राखी... राखी...
फिर एक दिन ऐसा भी आता है
जब आप बिना टिकट ही बंबई जाने का फैसला कर लेते
हैं
आप पाते हैं आप में
एक अजीब-सी ताक़त प्रवेष कर गई है राखी की वजह
से
यूं दिन गुज़रते जाते हैं...गुज़र जाते हैं
एक दिन राखी की ंिफल्म का कोई गाना गुनगुनाते
हुए
बच्चों के भारी षोर के बीच दाढ़ी बनाते हुए आईने
में
आपको अपनी मूंछ के कई बाल सफेद हो जाने का पता
चलता है
उस शाम पत्नी के साथ टाकीज में बैठे हुए
किसी नई हीरोईन की फिल्म देखने के दौरान
आप अपनी संगिनी के कान में फुसफुसाकर कहते हैं
‘ये जो हीरोईन की मां है न ! ये राखी !
एक समय मुझे बहोत अच्छी लगा करती थी...’
फिर आप गहरी सांस लेकर
एक सोच में डूब जाते हैं
अचानक तंद्रा टूटती है
जब पर्दे पर लिखा हुआ आता है
‘समाप्त’ ।
- कविता: -राग तेलंग
दो लोग
जीवन में
सिर्फ दो ही लोग
आपको जान सकते हैं
एक वह
जो आपको सामने से देखता है
दूसरा वह
जो आपको पीछे से देखता है
जो सामने से देखता है
वह आपको आधा जानता है
जो पीछे से देखता है
वह भी आपको आधा जानता है
दोनों जब मिलते हैं
आपको जान जाते हैं ।
- साक्षरता
खरगोष ने कछुए से कहा-
अब हम पढ़ना-लिखना सीख गए हैं
चलो पंचतंत्र फिर पढ़ते हैं
दोनों आगे बढ़े
खरगोष दौड़कर गया और
अंतिम पृष्ठ पर लिखी इबारत बदल दी
खुद विजयी बन बैठा
कछुआ पहुंचा
खरगोष से कहा-
इसकी कोई ज़रुरत नहीं थी !
अब तो मैं खुद पंचतंत्र की कहानी लिखता हूं
तुमने मुझे लेखक बना दिया
धन्यवाद !
अब मेरी कहानी में
दो कछुए साथ-साथ चलते हैं
असमानता की दौड़ में
मेरा विष्वास नहीं ।
- सिर्फ तीन धोखे
आदमी के जीवन में
धोखे तीन तरह से आते हैं
पहले आता है आधा धोखा
जो पूरा नहीं होता
इसलिए मालूम नहीं पड़ता
फिर आता है दूसरा
जो पूरा होने पर मालूम पड़ता है
इसलिए भारी पड़ता है
तीसरे धोखे से संभल- संभलकर
बच निकलने के फेर में
कट जाती है उम्र
आखिर में यह धोखा भी होता है
और आदमी धोखे से मारा जाता है ।
- कविता: राग तेलंग
साइड लोअर बर्थ पर कपोत
यह एक यात्रा थी जहां बाहर प्रकृति थी अपने
सारे रंगों में
अंदर दो खिड़कियां थीं जिनमें लोहे की सलाखें
लगी हुईं थीं
मगर प्रकाश और हवा भरपूर आ रहे थे
वह ठसाठस भरी एक ट्रेन की एक साइड लोअर बर्थ थी
जिस पर बैठा हुआ एक जोड़ा अपनी ही दुनिया में था
सबसे ग़ाफ़िल
दोनों के बीच संवाद हो रहे थे जो किसी को सुनाई
नहीं दे रहे थे शोर में
सुनाई दे भी जाते तो उससे ज्यादा महत्वपूर्ण था
उनका एक.दूसरे के शरीर को बीच.बीच में स्पर्श
करते देखना और
उनके चेहरे पर लगातार तैरती बेइंतिहा खुशी
जिसे देखकर किसी को भी रश्क़ हो जाए
हर शब्द फेंकते.फेंकते लड़का शनैः शनैः
लड़की के होठों को एकटक तकते उसके और.और करीब
आते जाता
लगभग उस सीमा तक जहां शब्दों की जरूरत नहीं रह
जाती और आंखें मुंद जाती हैं
बीच.बीच में लड़का बाहर की ओर निहारता और एक रंग
लड़की की आंखों में फेंकता
फलतः वह और सिंदूरी हो जाती
लड़की उमगकर उसके बालों को हाथ से छितर.बितर कर
देती और
लड़का शरारत से मुस्करा उठता
एक अवलोकन में लड़की की गोद में लड़के ने अपना
सिर रख दिया था
वह उसके चेहरे पर अपनी सबसे लंबी अंगुली इस तरह
फेर रही थी
जैसे गढ़ रही हो इच्छित मूरत
लड़का अधिक कोण की पूरी सीमा के कोण से उसे
निहार रहा था स्मित मुद्रा में लेटे हुए
एक दृश्य में तो लड़की उकड़ूं बैठ गई थी और उसके
फैले हाथ लड़के ने थाम लिए थे
वह उसके नाखूनों को काटने.तराशने में रत था
हर बार नाखून काटकर वह उसे फाइल से घिसता और
दूर करता खुरदुरापन मनुहार के साथ
यह एक दृश्य भर नहीं रह गया था
हस तरह वे जीवन को और स्नेहासिक्त और मृदुल बना
रहे थे
यह एक यात्रा जिसमें बाकी सभी अपनी.अपनी मंज़िल
का इंतज़ार कर रहे थे
मगर कपोतों को देखकर लगता था यह यात्रा नहीं
साथ है और साथ ही अभीष्ट है
हर दृश्य में प्रणय भरपूर था
जो क्रमशरू हुआ जाता था हर उतरते यात्री के साथ
यहां यह कविता रूकती है
यहां कवि को उतरना था
न चाहते हुए भी।
- कविता: राग तेलंग
मुस्कराहट
जिस तरफ खाई है
बच्चों का स्टीयरिंग
उसी दिषा में मुड़ा जा रहा है
ये उन्मत्तता कहलाती है
सिर्फ एक बच्चा अकेला
गुफा में बैठा
सितार बजा रहा है
ये साधना है
परिणाम जो जल्दी मिल जाएं
परिणाम नहीं
हमारी अधीरता के प्रतीक हैं
जहां पहुंचकर
औरों को संतुष्टि और
खुद को असंतुष्टि महसूस हो
वह तपस्या का फल है
कविता जादू का दर्पण है या
दर्पण में होती है कोई जादुई कविता
ये जादूगर भी नहीं जानता
और कवि होता है इतना मासूम कि
पूछो तो
मुस्करा भर देता है ।
- कविता: राग तेलंग
इस कहानी पर विष्वास मत करिए
ऐसा होता तो नहीं है पर ऐसा संभव है
एक जीती-जागती कहानी में
सुनकर आप कहेंगे-अफसोस मगर ऐसा हुआ !
हुआ क्या ऐसा ? जो होता तो नहीं
है मगर हुआ ! और
जिसे आइंदा होना नहीं चाहिए
एक मछेरा था
बचपन से मच्छी मारता आ रहा था
बड़ा हुआ तो नदी में जाल फेंकने बाद
नाव में बैठा-बैठा मां के गुनगुनाए गीतों को
दोहराता तो
कई रंग-बिरंगी चिड़ियाए़ं़ आकर नाव पर बैठ जातीं
उसके गुनगुनाने में साथ देतीं
रंग-बिरंगी आवाज़ों का संगीत सुनकर
रंग-बिरंगी मछलियां नाव के गिर्द चक्कर लगातीं
युवा मछेरा रंगों से प्यार करना सीख गया
वह रंगों वाली मछलियांे को आज़ाद कर देता
हालांकि ऐसा होना नहीं चाहिए
यूं इस कहानी के रंग-बिरंगे पात्र और हमारा
मछुआरा
आपस में दोस्त हो गए
अब अक्सर मछेरा एक ही तरह की मछलियां लेकर
लौटता तो
लोगों की सोच में भी न आता कि षिकार के रास्ते
में रंगों का होना संभव है
एक दिन एक रंग-बिरंगी सुनहरी मछली मछेरे के
करीब आई और
मछुआरे का हाथ थाम लिया
मछुआरे के भीतर रंगों की आवाजें गूंज उठीं
फिर तो उसने सुनहरी मछली का साथ अंत तक निभाया
आखिरी सांस तक उसको बचाया
हालांकि ऐसा होता तो नहीं है
अब मछेरा बस्ती छोड़कर खेतों में काम करने लगा
दूर किसी और देस में
एक दिन खेत में उसे एक रंगीन चिड़िया मिली
बड़ी जानी-पहचानी लगी
उसने पूछा-क्या तुम मुझे पहचानती हो ?
चिड़िया ने कहा-हम आज भी दोस्त हैं
हमारे भीतर एक से रंग हैं
मेरा रंग-मछली का रंग
मछली का रंग-मेरा रंग
कहां है वो रंगीन मछली ?
क्या तुमने उसे पकड़कर कहीं बेच दिया ?
बेच ही दिया होगा
तुम्हारा पेषा भी यही
धर्म भी यही
मछुआरा रुआंसा हो गया
बोला-मैं जानता हूं
हमारी बस्ती के लोगों के जीवन में रंग ठहरते
नहीं
मगर मैं रंगों को थामने निकला था उनके लिए
सो मछली का हाथ थाम लिया
और तुम चिड़िया लोगों ने भी तो मेरे भीतर रंग
उगाए
अब तुम्हीं बताओ
ऐसा क्या हुआ कि सब बिखर गया ?
चिड़िया के आंसू टपक पड़े
रुंधे स्वर में उसने कहा- बावरे !
हम तो तुम्हारे दोस्त थे फक़त
तुम तो कहां
नदी,मछली और खुद को डुबो बैठे, पानी
से दूर
तुम्हारी कहानी से समझ आता है
ऐसा होना नहीं चाहिए
हालांकि ऐसा होता तो नहीं है
अब नाव नहीं थी,
न ही नदी थी
मगर चिड़िया,मछली और मछुआरा
मिलकर गुनगुना रहे थे
रंगों से प्यार हो जाने का गीत ।
- कविता - राग तेलंग
वंषवृक्ष
वृक्ष की
एक षाख पर बैठकर
अपने स्मृति वृक्ष की षाखें हिलाता हूं
मुझे बीजों के दरकने की आवाजें़ सुनाई पड़ती हैं
और
कुछ सूखे जालीदार पत्ते मुझ तक उड़कर आते हैं
जिन दृष्यों को मैं सहेज पाता हूं
उनमें मेरे होने की प्रतीक्षा के क्षणों की
आहटें गुंथी हुई हैं
एक दृष्य मेें मैं
जन्म ले रहा हूं
एक सांकेतिक रुदन माला के साथ
मैं अपने को जान जाता हूं
बस यहीं !
स्मृति वृक्ष हिलना बंद हो जाता है
मैं वृक्ष से उतरता हूं
उसके गले लगकर रोता हूं
वृक्ष को जैसे सब पता है
वह मेरे कंपनों को थामता है
मैं महज एक पत्ता हूं
जानता हूं ।
- कविता: राग तेलंग
उपेक्षिता
एक स्त्री जिस किसी दृष्य में प्रवेष करती है
मंज़र बदल जाता है
यह एक ताक़त को देखने-महसूस करने की बात है
चाहे वह पेंटिंग हो,फिल्म हो,बागीचा
हो या हो स्वप्न
एक स्त्री अकेली नहीं जाती कहीं पर उसके साथ
रंग चलकर आते हैं
और खुषबू ,और ख़याल,और
ख़्वाब,और और भी बहुत कुछ
जब मुस्कराती है मोनालिसा बन जाती है
जब खुलकर हंसती है बेड़ियां टूट-टूट जाती हैं
जब रोती है चांद सितारे थम जाते हैं
जब लोरी सुनाती है जगमगाने लगते हैं स्वप्न
उसके कई नाम हैं जो दिल के संदूको में बंद हैं
जिन्हें कभी नहीं खोला जाना है
जो गूंज रही है धड़कनों में संगीत बनकर
जो बार-बार चलाती है बुरूष स्मृतियों के केनवास
पर
जो पसीने की गुजरी हुई लकीर पर हाथ फेरकर दूर
करती है थकान
वह एक स्त्री है जिसके होते घूम रहे हैं सारे
पहिए अब तक
मगर कुछ या कई दृष्य ऐसे हैं जो थमे हुए हैं
वहीं के वहीं
जैसे अभी भी वह लगा रही है झालर अपने बुर्के
में
बात करती है सकुचाती-डरी-सहमी सी घूंघट की आड़
में
उसकी सारी उमंगें और उत्साह थककर चूर हो जाने
हैं रसोईघर में ही
अभी भी वह इजाजत लेने की मोहताज है
उसकी अनंत इच्छाओं के आकाष में ढेर सारे टूटे
हुए पंख छितरा रहे हैं
उसके क्रंदन के स्वर बादलों की गड़गड़ाहट से हैं
कहीं तेज़
अभी दरवाजों के पीछे कई ताले जड़े दरवाजे हैं
जिनके पीछे खड़ी है स्त्री इंतज़ार में
अभी कई और दृष्यों की प्रतीक्षा है जिनमें
अपेक्षित है
स्त्री का प्रवेष ।
- कविता: राग तेलंग
तुम्हारा होना
अभी इस वक़्त तुम्हें और तुम्हारे होने को जी
रहा हूं मैं
यह जीना इसी जीवन में संभव है
संभव है तभी तो असंभव को पहचान सकता हूं मैं
मेरी आंखें और सांसें पहचानने के औज़ार हैं
जिन्हें धार देने का काम करता है तुम्हारा होना
तुम्हारे होने से एक पूरे काम के भीतर कई काम
हो रहे हैं
मेरे अंदर फूल खिल रहे हैं
बारिष हो रही है
जैसे जल रहा है लोभान
जैसे अक़ीदत हो रही है तुम्हारे होने से
अब बदल गए हैं भीतर के मौसम
घास ऊग आई है ओस की बूंदों के साथ
जिस पर मुझे अभी ही चलना शुरु करना है
उस अहसास के साथ जिसमें प्रत्यक्षतः मेरे हाथ
में
तुम्हारा हाथ तो नहीं है
मगर तुम हो क्योंकि तुम्हारे होने को जानता हूं
मैं ।
- कविता: राग तेलंग
समय की गिनती एक विभ्रम है
ढेर सारे आंसू मिलकर
समय को बर्फ की तरह जमा देते हैं
यह दुःख और सुख दोनों की बात है
देखोगे ऐसे में
सिर्फ एक मुस्कुराहट
फिर से दिल को पिघला देती है
समय को द्रवित करने की यही एक कला है
मेरे हाथ को थामो और
हथेलियों पर कुछ लिखो
देखना
शीषे पर पानी की बूंदें जम जाएंगी
समय को यूं भी रोका जाता है
टुकड़ों में समय की गिनती एक विभ्रम है ।
- कविता: राग तेलंग
एक अजब-गजब प्रेम
एक बार किसी ने मुझसे पूछा
तुम्हें पहली बार प्रेम कब, किससे
और कैसे हुआ ?
यकीन मानिये यह सुनकर मैं बहुत ज्यादा सोच में
पड़ गया
बड़ी मषक्कत के बाद मैंने महसूस किया
मुझे पहले-पहल प्रेम नींबू से हुआ था एक बागीचे
में
यह उसकी गंध थी जो मुझे उस तक खींच लाई और
उसके पेड़ की उंचाई मेरे बराबर की ही थी
जिससे उसके तमाम नींबू मेरी हद में हुआ करते
पूरी उम्र मेरा और नींबू का साथ बना रहा सस्ता,सुंदर,सुगंधित,गुणकारी,अपषकुननाषी
नींबू, मेरा नींबू
एक दौर के बहुत बाद तो नींबू मुझसे छूटते-छूटते
बचा
जी हां ! हाट में एक नींबू दस रु में बिकने लगा
सारी सब्जियां छोड़ उस दिन मैं एक अदद नींबू के
साथ घर लौटा
प्रेम जो करता था मैं उससे !
जानता हूं यह अजीबोगरीब स्वीकारोक्ति है कि
मैं एक नींबू से प्रेम करता हूं इस प्रेम विहीन
समय में
जब सारी चीजें कार्बाइड से गंधा रही हैं
तसल्ली होती है कि चलो मैं प्रेम तो करता हूं
कम से कम किसी से भी फिर भले ही वह एक नींबू ही
सही
मेरी आंखें असामान्य हो जाती हैं मैं तेज कदम
चलने लगता हूं उसकी तरफ
एक गंध मुझे खींचती चली जाती है
मेरी दृष्टि अर्जुन की आंख सी हो जाती है
जहां कहीं देखता हूं नींबू
ये नींबू का मेरे प्रति प्रेम है या मेरा नींबू
के प्रति
ये कीमियागरी किसने बनाई है पता नहीं
शुक्र है उस पहले दिन का जब मैं नींबू से मिला
और
उसका भी जिसने सवाल पूछकर अहसास दिलाया कि
मैं वाकई नींबू से बेइंतहा प्रेम करता हूं
हालांकि मेरा कंठ मधुर नहीं है
मगर अकेले में जब भी गुनगुनाता हूं
तो वे स्वर नींबू की महिमा के बारे में होते
हैं ।
No comments:
Post a Comment