राग तेलंग

Tuesday, September 29, 2015

मुस्कान का भी संगीत होता है : विदुषी स्मिता नागदेव के बहाने



ख़यालगाथा


मुस्कान का भी संगीत होता है : विदुषी स्मिता नागदेव के बहाने

संगीत की दुनिया में बहुत-सी ऐसी शख़्सियतें हुई हैं,जिनका ऑडियो के साथ-साथ वीडियो भी अनुपम रहा है.बड़े ग़ुलाम अली ख़ां अगर लंबे और कद्दावर शख़्स थे तो अमीर ख़ां साहब का व्यक्तितव आकर्षक था ही,पंडित रविशंकर की सितार बजाते हुए तस्वीर में उनकी कॉस्मिक मुस्कान को कौन संगीतप्रेमी भूल सकता है ! उस्ताद विलायत ख़ां के होंठों पर की रूहानी जुंबिश याददाश्त से पेशे-दरकिनार भला हो भी सकती है कहीं !
पंडित कुमार गंधर्व,उस्ताद अमज़द अली ख़ां,बेग़म परवीन सुल्ताना,बेग़म अख़्तर,मदन मोहन की मंद-मंद मुस्कुराहट, और हां ! लता जी की वह सकुचाती मुस्कान याद है ना आपको !
मैं आप लोगों को बहुत ज़्यादा पशोपेश में ना डालते हुए, बता दूं कि आज की बातें ख़याल गाथा के इस मंच पर जिनके बारे में कीं जा रही हैं वे हैं हमारे समय की एक अप्रतिम संगीतकार और प्रख्यात सितार वादक विदुषी स्मिता नागदेव |
उनके संगीत से मेरा सर्वप्रथम परिचय वर्ष २०१४ के लोकरंग में रवीन्द्र भवन में आयोजित प्रस्तुति से हुआ.देश के विभिन्न अंचलों के तंतुवाद्यों का ऐसा समागम और साथ ही उनका जीवंत संयोजन एक अविस्मरणीय अनुभूति था.प्रस्तुति के दौरान मैंने गौर किया कि जब एक वाद्य अपना आख़िरी सिरा छोड़ता और तभी जब दूसरे वाद्य को वहां से सिरा थामना होता,स्मिता जी की मुस्कान उस नई शुरूआत के प्रथम बिंदु के रूप में होती,वह भी स्वयं सितार थामे हुए.
बताता चलूं कि स्मिताजी का निर्माण जिस परिवेश ने किया है,उनमें शामिल हैं उनके यशस्वी पिताश्री मशहूर चित्रकार श्री सचिदा नागदेव,माता श्रीमती नागदेव,आरंभिक गुरू श्री आष्टेवाले जी और तत्पश्चात उनके सरपरस्त बने सरोद के पर्याय और हमारे मध्यप्रदेश के गौरव उस्ताद अमजद अली ख़ां.  जिन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की धारा को अक्षुण्ण बनाए रखने में अपना अपूर्व योगदान दिया है.
कहते हैं कोई शख़्स जब हंसता है तब उसकी चार सौ से ज़्यादा मांसपेशियां एक साथ काम कर रही होती हैं, अब इस रूपक को वैज्ञानिक संदर्भ से हटाकर अगर पुरा-परंपरा से जोड़कर देखें तो कहना यूं चाहिए कि एक शख़्स की मुस्कुराहट में उसकी समूची परंपरा भी मुस्कुराती है.
यह स्मित की निर्बाध परंपरा है जिसे स्मिताजी ने धारण किया है,जिसे सिर्फ संगीत के मंच पर ही अनुभूत किया जा सकता है वह भी उनके सितार वादन के  दौरान.
आप सोचकर देखिए कि नाद की  एक क्रिया अगर व्योम में कहीं संपन्न हुई है और उस आवृत्ति को कोई पकड़ पा रहा है,तब तो निश्चित ही उस क्रिया का कर्ता इस समीकरण का इति सिद्धम अंतत: मुस्कान के साथ ही करेगा.
फिराक़ की पंक्तियां याद आती हैं - यारो बाहम बिखरे पड़े हुए हैं टुकड़े कायनात के , एक फूल को जुंबिश दोगे , दूर कहीं एक तारा कांप उठेगा.

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