राग तेलंग

Sunday, April 24, 2016

एक मुहल्ले में हुआ करता था भरा-पूरा फूलों का बागीचा

कविता : राग तेलंग

एक मुहल्ले में हुआ करता था भरा-पूरा फूलों का बागीचा

जब हम बागीचों में नहीं होते थे
फूल तब भी  हमारे आसपास घरों-मुहल्लों में मौजूद थे
लगभग अपनी समूची महक के साथ पूरी मस्ती में झूमते-गाते 
मगर...मगर हमने कभी  गौर ही नहीं किया

शुरुआत  उस कामगार स्त्री से करते हैं जिसका नाम था फूलबाई
फूलबाई से सबके दिन की शुरुआत होती
और शाम तक भी फूल नाम ज़ुबां पर रहता किसी न किसी के 
उसके आने की प्रतीक्षा में रोज़ गाहे-बगाहे मन में गूंजा करता एक शब्द 'फूल'
एक थी कुमुद जो निचले तल के घर में रहा करती
जहां अपने-अपने कामों से निवृत्त हो अन्य फूल दोपहर की बैठकों में इकठ्ठा हुआ करतीं
कमल तो केंद्र बिंदु थी मुहल्ले के लिए सलाह-मशविरों के वक़्त
एक थी पुष्पा जो जब-तब किसी न किसी फूल का ज़िक्र छेड़ देने के लिए जानी जाती थी
एक सुमन हुआ करती थी जो अफसानों में जाकर महक रही थी अब भी
कुसुम के मुहल्ले में तो चंपा-चमेली और जूही की खुशबू की बड़ी कीर्ति थी
और एक थी निशिगंधा नाम की षोडशी जिसके चर्चे चहुं ओर थे
ठीक वैसे ही जैसे फैलती है सुवास हर सिम्त
और उसकी सखियाँ कुंदा,गुल,,रोज़ी,लिली के तो क्या कहने !


ऐसे कई महकते फूल आसपास थे
जिनके बारे में ज़रूरी हैं कविता में दो-चार वाक्य
मगर फिर कभी

मगर हाँ !
हर मुहल्ला 
निरापद भी नहीं था सब तरह से
वहां सिंह-शेर,रणजीत,गब्बर,गैंडा टाईप के माली भी हुआ करते
जिनको देखते ही लगता था कि फूल और फूल की खुशबू जैसी चीज़ें
उनके जीवन के शब्दकोष में नहीं ही होंगी,और ऐसा था भी  
और एक जिसका नाम वसंत जैसा कुछ था
वह फूलों के लिए चाहते हुए भी कुछ करने से मजबूर था
सदियों से किसी भी मुल्क में फूलों की खुशबुओं का यूँ ही व्यर्थ चले जाना
हिरोशिमा-नागासाकी जैसी त्रासदी से कम नहीं होता
आज दुनिया का नक्शा उठाया तो कई मुल्कों पर अलग-अलग रंग चढ़े देखे
रंगों से आया फूलों का ख़याल
फूलों से हिटलरिया मुच्छड़ टाईप के उन आकाओं का जो मुल्कों को हांक रहे थे
कि अचानक महसूस हुआ एटलस से आता खुशबू का झोंका

ऐसे में दिलचस्प है यह सोचना कि अब अगर एटम बम से उठे धुएं का ग़ुबार
दुनिया के नक्शे को ढंकेगा तो
उसका मुकाबला फूलों की खुशबुओं के झोंकों से ज़रूर होगा |

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